आज का चिंतन, मेने बहुत पहले बचपन मै किसी बाबा के मुख से सुना था, ओर ऎसे चिंतन मै अकसर अपने बच्चो को कहानी के रुप मे सुनाता रहता हुं, पता नही ठीक है या गलत....
चलिये आप को भी यह चिंतन एक कहानी के रुप मै सुनाता हुं, कल ओर शनि वार को मेरे पास समय ना के बराबर होगा, ओर मै कुछ ही समय आप के चिट्टे पढ पाऊंगा.
तो लिजिये आज का चिंतन....
बहुत समय पहले एक सेठ कही जा रहा था, सेठ बहुत अच्छा ओर दयालू था, उसे आगे जा कर एक साधू मिला, फ़िर दोनो साथ साथ चल पडे,बातो बातो मे सेठ ने अपने मन कि बात साधू बाबा को बतलाई कि बाबा मै सब सुख होते भी अंदर से सुखी नही, मेरे पास धन दोलत की कमी नही, लेकिन मुझे असली सुख कि तलाश है, कोई मेरा आधे से ज्यादा धन ले कर भी मुझे असली सुख दे दे तो मै उसे अपना आधा धन खुशी खुशी देने को तेयार हु,
साधू बाबा काफ़ी देर से देख रहे थे कि सेठ अपने हाथ मे पकडी पोटली को बार बार छुपने कि कोशिश कर रहे थे, लेकिन उसे खोने के डर से हाथ मै ही रखे थे, कि कही रख दी ओर मेरी आंख लग गई तो ... ओर तब मोका देख कर साधू बाबा सेठ की पोटली झपट कर जंगल की तरफ़ भाग गया, पीछे पीछे सेठ भी शोर मचाता भागा, साधू बाबा तो पतले थे सो फ़ुर्ती से भाग गये, सेठ थोडी दुर भागा, फ़िर थक कर बेठ गया, ओर साधू को तो कभी अपने आप को कोसने लग गया, ओर बहुत दुखी हुया कि मेरे तो काफ़ी सारे हीरे जवहरात तो यह साधू ले भागा, ओर सर झुका कर बेठ गया.
तभी सेठ की झोली मे उस के हीरो की पोटली आ कर गिरी, सेठ ने झट से पोटली उठा कर छाती से लगई, ओर फ़िर पोटली खोल कर देखा सब ठीक ठाक है, तभी उसे साधू बाबा की आवाज आई कि सेठ जी आप को सुख मिला ? सेठ ने कहा हां अब मेरी पोटली मुझे मिल गई अब मै बहुत खुश हुं, मुझे इस पोटली के मिलने से बहुत सुख मिला, बाबा ने कहा, लेकिन इस पोटली के खोने से पहले भी तो तुम ने ही कहा था कि तुम्हे असली सुख चाहिये, सेठ अभी भी नही समझे यह धन दोलत तो नकली सुख है, अगर तुम्हे असली सुख चाहिये तो तुम्हे त्याग, सेवा का धन इकट्टा करना पडेगा, इस धन की जरुरत फ़िर नही पडेगी, यह धन तो दुख का भंडार है, ओर तुम दुख के घर मे रह कर सुख की आस केसे कर सकते हो.....
सेवा सुख समान सुख नाहीं>
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट, बढ़िया चिंतन !!
ReplyDeleteलगे रहे , शुभकामनाएं !!
बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
वाह ! बहुत बढ़िया लिखा है आपने !
ReplyDeleteइसी प्रकार के सांच को समाज में विकसीत करने की आवश्यकता है .. बहुत बढिया !!
ReplyDeleteजो आवे संतोष धन सब धन धूरि समानं (संतोष के सामने सब धन धूल के सामान हैं -मतलब सतोष ही सबसे बड़ा धन है )
ReplyDeleteराज बाबाजी की जय हो :)
ReplyDeleteज्ञानवर्धक कहानी भाटिया साहब, पैसा/धन सारे सुख नहीं देता, सत्य है !
ReplyDeleteज्ञानवर्धक कहानी भाटिया जी,शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आपकी इस पोस्ट से अमिताभ जी की एक पोस्ट याद आ गई "मेरा सुख", वैसे कहानी अच्छी है। और सच भी कहती है।
ReplyDeleteपिछली बार भी कम्मेन्ट पोस्ट नहीं हुया था बहुत अच्छी कहानी है बधाई
ReplyDeleteआप भावी पीढ़ी को संस्कारित कर रहे हैं।
ReplyDeleteयह आज के युग में बहुत महत्वपूर्ण कार्य है।
बधाई!
कम्मेन्ट तो कल भी किया था परन्तु पोस्ट नहीं हुया था।
एक ऐसे साधू की तलाश में जिन्दगी चल रही है भाटिया जी! बोध कथा पढ़ का सीधे समझ नहीं आता, जब तक साधू एक बार तड़फा कर दौड़ा न मारे!
ReplyDeletebahut achchhi naseehat hai :)
ReplyDeleteमैं भी हीरे जवाहरात त्यागने को तैयार बैठा हूं
ReplyDeleteबस शर्त ये है कि कोई पहले दे तो सही.
सच कहा आपने, सच्चा सुख तो त्याग और सेवा से ही मिलता है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया... पर हित सरस धर्म नहीं भाई.......
ReplyDeleteपरोपकार सबसे बड़ा धर्म कहा गया है..
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति..बधाई..!!