राज जी,
गाँव का नाम तो बता दीजिये, लगता नईं है की ये हमारे ही देश का गाँव है. आपने तो बस गाँव के बाहर चक्कर लगवा दिया अन्दर वालों से भी मिलवानाथा.
ऐसा खुबसूरत गाँव तो पहली बार देखा है , ये तसवीरें कहा की है सर
भाटिया साहब,
पहली बात तो ये कि आपने गांव का नाम नहीं बताया।
बहुत सुन्दर नजारे हैं। मैं आज ही दिल्ली से जर्मनी जाने वाली ट्रेन का स्लीपर में टिकट रिजर्व कराता हूं।
हमारे गांव ऐसे कब होंगे भाटाया जी ?
राज अंकल आपने हमारे जिज्ञासा का समाधान किया इसके लिए धन्यवाद और सपनों सा प्यारा है आपका गाव !
कभी हमें भी बुलाइए ना :)
कहिये तो RESUME भेजू :)
सर जी आपका गाँव बड़ा प्यारा.. मैं तो हूँ पछताया..... बिन आये वहाँ रे...
Bhatiya...main to ise dekhe bagair nahi maan sakta....Kab Bula Rahe Ho..?
आप सभी ओर अन्य लोग जो भी यहां आना चाहे स्बागत है एक भारतिया हाथ जोडे खडा है.
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- भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...
बहुत अच्छा लगा आप के गांव को देखकर. मेरा एक भाई भी जर्मनी जा रहा है शिक्षा ग्रहण करने. उसे भी आपके और आपके गांव के बारे में बताऊंगा..
- आप चाहे तो मेरे पता उसे दे सकते है, मेरा फोन ना० भी मैने आप को मेल मै भी लिखा था, आप मेल करे मै आप को फ़ोन ना० दे दुंगा...
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- महफूज़ अली said...
काश! हमारे हिंदुस्तान में भी ऐसे ही गाँव होते.......
- राजीव तनेजा said...
उम्मीद पर दुनिया कायम रखते हैं कि कभी ना कभी तो तरक्की की लहर यहाँ भी आएगी ...
बहुत बढ़िया लगा आपका गाँव देखकर
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
गाँव की उन्नति के इस स्तर को देख कर लगता है कि हम अभी बहुत पीछे हैं। हमें तो अभी आपस में लड़ने के लिए फौजें पैदा करने से ही फुरसत नहीं है।
सुलभ § Sulabh said...
आज आपके किसान मित्र के घर गौशाला और फसले देख मन प्रसन्न हुआ...
भारत में भी कम से कम सफाई पर विशेष ध्यान तो दिया ही जा सकता है.... तकनीक तो देर सवेर सबके पास आ ही जायेगी.
काश नही अगर हम मेहनत करे देश मै इमान दारी हो तो हमारा देश भी ऎसा बन सकता है, लेकिन दिनेश जी ने आगे की बात लिख दी हमें तो अभी आपस में लड़ने के लिए फौजें पैदा करने से ही फुरसत नहीं है।
सुलभ जी आप ने बिलकुल सही लिखा कि तकनीक तो देर सवेर सबके पास आ ही जायेगी. पहले हमे सफ़ाई पर, अपनी जागरुकता पर ध्यान देना चाहिये.
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खुशदीप सहगल said...
राज जी बेहतरीन पोस्ट के लिए आभार...
कितना साइंटिफिक और कितना ईमानदार है जर्मनी का ग्रामीण जीवन...किसानों के साथ सरकार भी पशुओं के स्वास्थ्य के लिए कितनी सजग है, ये आधा सेंट भारतीय रुपये में कितना बैठता होगा...
जय हिंद...
खुश दीप जी यहां € चलते है, ओर एक € मै सॊ सेंट होते है, ओर एक € करीब ६० रुपये के बराबर है आज कल, ओर दुध ०,५० सेंट यानि ३० रुपये का एक लिटर है... यहां महगाई बिलकुल नही है, पता नही हमारे नेता रोज भाषाण मै क्यो चिल्लाते है कि विश्व मै महांगाई बढ गई है, चीनी ०,६० सेंट की किलो, बीयर ००, ६० सेंट
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dhiru singh {धीरू सिंह} said...
मेरे यहा तो दो गाय है एक ५ किलो दूध देती है दूसरी ९ किलो
जर्मनी और भारत के किसानो मे एक समानता है क्या आपने कभी मह्सूस किया .....
............ मैने किया दोनो को अंग्रेजी नही आती :)
धीरु जी यहां सब को अग्रेजी आती है, कोई अनपढ नही, लेकिन यह अग्रेजी बोलते नही, इन्हे अपनी मात्र भाषा से बेहद प्यार है
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Smart Indian - स्मार्ट इंडियन said...
भाटिया जी, आज तो आपने कमाल कर दिया. ऐसी ही जानकारियों और चित्रों की अपेक्षा है. जर्मनी के आम मजदूर और किसान के जीवन के बारे में जानें तो समझ में आता है कि जान की परवाह न करते हुए भी लोग पूर्वी जर्मनी के किसान और मजदूर वहां के शोषक कम्म्युनिस्ट बंदूकचियों से बचकर इधर क्यों आना चाहते थे.
जी वो पुर्वी जर्मन के लोग आज भी काम चोर ओर चलाक है,लेकिन अब तो बहुत देर हो गई, ओर जर्मन सरकार ने उन्हे भी बराबर खडा कर लिया, लेकिन उन्हे आज भी यह लोग दुसरे ना० का नागरिक समझते है.
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- RAJWANT RAJ said...
aasma bhi vhi , jmi bhi vhi
mehnt vha bhi vhi mehnt yha bhi vhi
frk hai to tkniki ka .
aise post ki daqumentri bnni chahiye jisse ki log labhanvit ho ske .- फ़र्क है लोगो की सोच का, नेताओ की नीयत का.... अगर यहां १०० € गांव के लिये दिया जाता है तो मै कभी भी जा कर उस सॊ € का हिसाब किताब पुछ सकता हुं, ओर नेता को हिसाब देना होगा, क्योकि मै जानता हुं कि वो नेता मेरा( जनता) का नोकर है मालिक नही.ओर वो सॊ € पुरा उसी काम पर लगेगा जिस के लिये मिला है.
- बस यही फ़र्क है
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- डा० अमर कुमार said...
तस्वीरें और वर्णन ढेर सारी लज़्ज़ा और कुछ ईर्ष्या जगाती है,
क्या भारतीय सच में असभ्य और सामाजिक रूप से गैरजिम्मेदार हैं ? - वो देश भी मेरा ही है, ओर दिल करता है कि वहां जा कर कुछ ऎसा करुं, मै क्या हमारे सभी मित्र यही चाहते है, लेकिन हमारे देश मै भरष्टा चार, ओर नोकर शाही ने ओर रही सही कसर साहब जेसे लोगो ने खराब कर रखी है, वर्ना ऎसी कोई दिक्कत नही कि हमारा देश सुंदर ना बन सके, हम मेहनती भी बहुत है, बस जागरुक नही.
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- नीरज जाट जी said...
भाटिया जी,
आज अपने देसी गांव के बारे में कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि मुझे अपने गांव की धूल से, गांव की गन्दगी से, असुविधाओं से बेहद प्यार है।
हां, आपका गांव देखकर लगा कि तकनीकी इन्सान का काम कितना आसान कर देती है।
हम तो जी आज के समय में भी चिलम भरना, दूध दुहना, खाट बुनना, भैंस के ऊपर बैठकर जोहड में जाना जानते हैं।
नीरज भाई हम ने भी यह सब किया है जो आप बता रहे है, मुझे आज प्यार है उस देश से जहां मै पेदा हुआ, वो केसा भी हो.है वो मेरा, उस की दुर्दशा देख कर हमारा दिल भी रोता है, उसे खुशहाल देख कर, हमारा सीना भी गर्व से फ़ुलता है, जय हिन्द
*** पी.सी.गोदियाल said...
Bhatia sahab , kabhi plot-walot kat rahe hon to bataana, majaak nahee kar raha.
गोदियाल साहब अभी मै अकेला कमाता हुं, इस लिये ज्यादा पेसे नही है, ओर कर्ज लेना मेरे नियम से गलत है, इस लिये कभी मकान या प्लाट लेने की नही सोची, लेकिन रिटायार मेन्ट के बाद जरुर सोचूंगा इस बारे तब आप को बता दुंगा,
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भाटिया जी, आपका गाँव तो वाकई बहुत खूबसूरत है. डिस्कवरी चैनल पर जर्मनी के गाँव और वहां की रिसायकलिंग के बारे में देखा है सो कुछ जानता हूँ. सुना है वहां हर घर में धातु, पेपर, प्लास्टिक, और कांच का कचरा रखने के अलग-अलग डिब्बे होते हैं और किसी भी कचरे को फेंका नहीं जाता.
ReplyDeleteमैं आपसे यह भी जानना चाहता हूँ कि कई बड़े-बड़े शहरों को छोड़कर गाँव में रहने के पीछे क्या कारण है?
राज जी,
ReplyDeleteआपका गांव बड़ा प्यारा,
मैं तो गया हारा,
देखके आपकी सारी पोस्ट रे...
जय हिंद...
वाह आपने तो दिल जीत लिया...सभी की टिप्पणियों का अलग से जवाब देकर.
ReplyDeleteफिर कहता हूँ ...............नज़र ना लगे आपके गाँव को !!
ReplyDeleteजिस दिन भारत के गाँव ऐसे हो जाएंगे उस दिन लोग शहर छोड़ वापस गाँव लौटना चाहेंगे।
ReplyDeletethank you bhatia ji... nischit roop se main uske liye aapka number doonga..
ReplyDeleteमेरे नए ब्लोग पर मेरी नई कविता शरीर के उभार पर तेरी आंख http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_30.html और पोस्ट पर दीजिए सर, अपनी प्रतिक्रिया।
ReplyDeleteये सही काम किया!
ReplyDeleteभाटिया जी मैंने तो पासपोर्ट पर सरसों का तेल ऒर काला टीका लगाकै तैयार कर दिया... बस आप तुरंत कविगोष्ठी करवालो इस गांव में.... मैं रोहतक की रेवड़ी, पानीपत का कंबल, जगाधरी की नंबर वन अर इंदौर तै असली ताऊ नै लेकै तैयार हो रहा हूं............. बहरहाल बेहतरीन प्रस्तुति... साधुवाद..
ReplyDeleteवाह भाटिया जी, आपने अपने गाँव में घुमा कर सभी लोगों को पहले ही खुश कर दिया था और अब लोगों की जिज्ञासा शान्त करके दिल भी जीत लिया!
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ReplyDeleteयही तो... भाटिया जी,
जागरुकता तो दूर, नेता स्वयँ चाहते हैं कि गरीबी अशिक्षा बनी रहे ।
पर यदि कोई अपनी पहल पर सभ्यता, सौजन्य, नियम कानून की बात करता है.. तो उसे यह कह कर ख़ारिज़ कर दिया जाता, " अबे, चल हट ! बड़े आये अँग्रेज़ की औलाद ..."
मानो कि सभ्यता, सौजन्य, नियम कानून इत्यादि हमने अँग्रेज़ों के हवाले कर दिया है, और स्वयँ एक मुँहजोर लतिहरपन में ही मस्त हैं !
टिप्पणियों पर आधारित रचना बहुत बढ़िया रही साहिब!
ReplyDeleteयह भी खूब रही भाटिया जी।
ReplyDeleteभाटिया जी ,
ReplyDeleteजितनी सुंदर ग्राम यात्रा की पोस्टें रहीं उतनी ही सुंदर ये सबकी जिज्ञासा शांत करने वाली पोस्ट भी । अब तो हमें पूरा जर्मनी देखने की ईच्छा है ।
जर्मनी के गाँव की सुन्दर जानकारी के लिए धन्यवाद . विदेशों में रह रहे भारतीय ब्लोगर यदि अपने देश की अच्छी बातों और बुरी बातों से अवगत कराते रहें तो, अपनी अच्छाइयों और बुराइयों का पता चलता रहेगा. कामना है कि हमारे गाँव भी इस तरह के बनें. संभवतः हमारे विकास की परिभाषा में गाँव का विकास सही सन्दर्भ में शामिल नहीं हो पाया है.
ReplyDeleteबहुत प्यारा है आपका गाँव .... ऐसी हरियाली कम से कम भारत के गावों में तो देखने को नही मिलती ...
ReplyDeleteसर सेल का चक्र तो कई बार लगाया औऱ फंसे भी। जब समझ मं आया तो बड़ी मार्किट में ज्यादा घूमना शुरु किया औऱ वही समान बिन सेल के सस्ते में खरीदने में कई बार कामयाबी गई।
ReplyDeleteहां सर आपके गांव में गाय होती है तो हमें बता दें। मन तो करता है कि साल में छह महीने कम से कम आपके ही गांव आ कर रहें. पर क्या करें काम दिल्ली में करते हैं। औऱ रोजी रोटी का चक्कर भी है।
अहा ! ग्राम्य जीवन भी क्या है ।
ReplyDeleteरोचक ।