यह चिंतन रुपी लेख मुझे अभिषेक ऒझा जी ने, e mail से भेजा है, आज कल लगता है वो बहुत व्यस्त है काम मे, इस लेख के साथ ही उन्होने आप सब को नमस्ते भी कहा है, तो लिजिये यह सुंदर लेख एक अच्छे चिंतन के रुप मै...
जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है,सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, 'काँच की बरनी और दो कप चाय' हमें याद आती है ।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं...उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ... आवाज आई...फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु कियेh धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये,
फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ...कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ.. अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया – इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो.... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं,छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है.. अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक- अप करवाओ...टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे.. अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि 'चाय के दो कप' क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
वाह बहुत बढियां -आज का दिन इसी के साथ -आपको और अभिषेक जी को शुक्रिया !
ReplyDeleteइसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
ReplyDelete"जीवन को इतनी सुन्दरता से कहाँ कोई समझ पाता है , इनते सुंदर सार्थक लेख के लिए आभार.."
regards
seema ji se puri tarah se sahamat...
ReplyDeletearsh
बहुत ही बढ़िया सीख..
ReplyDeleteजीवन में परिवार की खुशियाँ ही प्राथमिकता होनी चाहिये.
दो कप चाय वाली बात भी बहुत ही खूब लगी..
बहुत ही सुंदर प्रसंग है.
thanks a lot for such a precious knowledge of philosophy of life . what we should collect , and what we are adding to our life .
ReplyDeletehai maanush janm sona
isko naheen tum khona
satsang hai ik darpan
sab daag isee mein dhona
बहुत ही सुंदर लेख. हमने पहले पढ़ी थी लेकिन उसमे कोफी थी. आभार.
ReplyDeleteमैने यह कथा राकेश त्रिपाठी जी के सरपंच जी नामक ब्लॉग पर (http://sarpanchji.blogspot.com/2008/09/blog-post_27.html) सितम्बर में पढ़ी थी। बहुत अच्छी बात है इसमें।
ReplyDeleteइसे दुबारा पढ़वाने का धन्यवाद।
इस कहानी के लिये आपका और भाई ओझा साहब का बहुत आभार !
ReplyDeleteप्रोफ़ेसर साहब ने कहा - जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।
भाटिया साहब इसीलिये तो ब्लागिन्ग कर रहे हैं ! दो कप चाय ना सही दो टीपणि तो मिल ही जाती है ! :)
रामराम !
बहु्त अच्छी लगी..
ReplyDeleteसुंदर और शिक्षाप्रद!
ReplyDeletebahut sundar jeevan varnan
ReplyDeleteएक अच्छी शिक्षाप्रद पोस्ट को पढवाने के लिए शुक्रिया। आप दोनो का धन्यवाद।
ReplyDeleteजीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये।
बिल्कुल सोलह आने सच बात।
निःसंदेह.......बहुत सही नज़रिया है जीवन का,बधाई हो
ReplyDeleteसिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी आप की बात बिलकुल सही है, मै इस लिंक पर गया तो,बिलकुल सही लेख मुझे वहां मिला मै विकास कुमार जी से माफ़ी चाहुगां, ओर अगर उन्हे कोई ऎतराज हुआ तो इस लेख को मै यहां से हटा दुगां, लेकिन यह लेख मुझे अभिषेक ऒझा जी ने भेजा था ओर प्रकाशित करने की बात कही थी.
ReplyDeleteआप सब से ओर विकास जी से माफ़ी मागता हुं
धन्यवाद
Sunder Baat.
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ReplyDeleteनिसंदेह बहुत ही सुन्दर बात कही आपने
ReplyDeletebahut sunder baat
ReplyDeleteवाह बहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteजीवन में कुछ चीजें हमेशा रहनी चाहिएँ- तोड़ने के लिए तिनके और कहने के लिए शब्द और आपने एक और जोड़ दिया दोस्तों के साथ चाय।
बहुत ही सुंदर प्रसंग है.
ReplyDeleteis kahani ke liye aapka or abhishek bhai ka aabhar!
ReplyDeleteराज जी, इस प्रेरक कथा का मूल लेखक पता नहीं कौन है। इसे मैने यहाँ (http://paankidukaan.blogspot.com/2008/09/blog-post.html) पान की दूकान नामक ब्लॉग पर भी पाया है। सरपंचजी से भी पहले।
ReplyDeleteआपको माफी मांगने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन जालस्थलों पर जाकर टिप्पणी के माध्यम से इस पोस्ट की सूचना दे देनी चाहिए और मूल लेखक का पता लगाना चाहिए ताकि उसे क्रेडिट दी जा सके। यह भी सम्भव है कि शायद यह कोई लोककथा जैसी सार्वजनिक सामग्री हो।
चाय उस जार मे क्यो डाल दिये वों मै पी जाता :)
ReplyDeleteबहुत बढीया। एक दम सही। हमे अपनो के साथ ही रहना चाहीये। और किसी बिजनेस और पैसे के लीये घर को नही भूलाना चाहीये।
chai ke cup wali baat sabse achchhi lagi.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeletebahut hi bhavnatmak aur samvedanatmak....achha laga aapko padhkar...regards
ReplyDeleteक्षमा हम भी मांग लेते हैं. जैसा कि मैंने अपने ईमेल में लिखा था कि ये मुझे भी एक फॉरवर्ड हुई ईमेल में ही मिला था. बस ये बात ऊपर लिख दी गई होती तो शायद विवाद नहीं होता.
ReplyDeleteधन्यवाद राज साहब.