क्रमश से आगे....
'हे अग्निदेव !इस प्रकार सीता की शुद्धि आवश्यक थी, मे यों ही ग्रहण कर लेता तो लोग कहते कि दशरथ पुत्र राम मूर्ख ओर कामी हे, (कुछ लोग सीता के शील पर शकं भी करते जिससे उस का गोरव घटता,आज इस अग्नि परीक्षा सीता ओर मेरा दोनों का मुख उज्जवल हो गया हे) मे जानता हूं कि जनक नन्दिनी सीता अन्न्यह्र्गया ओर सर्वदा मेरे इच्छानुसार चलने वाली हे, जेसे समुन्द्र अपनी मर्यादा त्याग नहीं सकता, उसी प्रकार यह भी अपने तेज से मर्यादा मे रहने वाली हे, दुष्टात्मा रावण प्रदीप्त अग्नि ज्वाला के समान अप्राप्त इस सीता स्पर्श नहीं कर सकता था,सुर्या- कान्ति-सदृश सीता मुझसे अभिन्न हे, जेसी आत्मवान पुरुष र्कीर्ति का त्याग नही कर सकता.
इतना कह कर भगवान श्रीराम प्रिया सती सीता को ग्रहण कर आनन्द मे निमग्र हो गये, इस प्रसांग से यह सीख्ना चाहिये कि स्त्री किसी भी हालत मे पति पर नाराज ना हो ओर उसे संतोष कराने के लिये न्याययुक्त उचित चेष्टा करे,
गृहस्थ धर्म....
सीता अपने स्वामी ओर देवर के साथ आयोध्या लोट आती हे, बडी बुढी स्त्रियो ओर सभी सासुओं के चरणॊ मे प्रणाम करती हे, सब ओर सुख छा जाता हे,अब सीता अपनी सासुओ की सेवा मे लगती हे ओर उन्कि सेवा मन से करती हेकि सब को मुग्ध हो जाना पडता हे, सीता जी गृहस्थ का सारा काम सुवारुरुप से करती हे जिससे सभी सन्तुष्ट हे, इससे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि विदेश से लोटते ही सास ओर सभी बडी बुढी स्त्रियो को प्रणाम करन चाहिये ओए सास आदि की सच्चे मन से सेवा करनी चहिये,एवं घर का का काम सुचारु रुप से करना चहिये.
समान व्यवहार...
श्रीसीता जी भरत , लक्षमण ओर शत्रुघण इन देवरो के साथ पुत्रवत बर्ताव करती थी ओर खानपान आदि मे किसी प्रकार का भी भेद नही रखती थीं,स्वामी राम के लिये जेसा भोजन बनता था ठीक वेसा ही सीता अपने देवरो के लिये बनाती थी,देखने मे यह बात छोटी सी मालुम होती हे , किन्तु इन्ही छोटी छोटी बातो के कारण आज भारत मे लाखो परिवार बुरी दशा मे हे, सीता जी के इस बर्तव से स्त्रियो को खान-पान मे समान व्यवहार रखनए की शिक्षा लेनी चाहिये ,
सीता परित्याग...
एक समय भगवान राम गुप्तचरो के दुवारा सीत के सम्बन्ध मे लोका पवाद सुन कर बहुत ही शोक करते हुये लक्षमण से कहने लगे कि भाई ! मे जानता हू कि सीता पबित्र ओर यशस्विनी हे,लकां मे उसने तेरे सामने जलती हुई अग्नि मे प्रवेश करके अपनी परीक्षा दी थी ओर सर्वलोक- साक्षी अग्निदेव ने स्वयं प्रकट हो कर समस्त देवता ओर ऋषियों के सामने सीता के पाप रहित होने की घोषणा की थी,तथापि इस लोकापवाद के कारण मेने सीता के त्याग का निश्चय कर लिया हे,इसलिये तू कल प्रात: काल ही सुमन्त सारथी के रथ मे बेठा कर सीत को गगां के उस पार तमसा नदीं के तीर पर महातमा वाल्मीकि के आश्रम के पास निर्जन वन मे छोडकर चला आना, तुझे मेरे चरणॊ की ओर जीवन की शपथ हे, इस सम्बन्ध मे तू मुझ से कुछ भी ना कहना, सीता से भी अभी कुछ न कहना, लक्षमण ने दु;ख भरे ह्र्दय से मोन होकर आग्या स्वीकार की ओर प्रात: काल ही सुमन्त से कहकर रथ जुडवा लिया.
क्रमश...
४,५ किश्ते ओर बची हे
बहुत बढ़िया प्रस्तुति..... जय श्री राम
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति..... जय श्री राम
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