बात करीब ७,८ साल पुरानी हे,दिल्ली से मेने रोहतक आना था, बच्चो का मन भारत की बस मे बेठने को बहुत था,बच्चे जिद कर रहे थे एक बार बस मे बेठना हे.मेने बहुत समझाया बेटा यहा बस मे बेठना तुम्हारे लिये बहुत कठिन हे, खेर मे तो पेदा यही हुया हु, मुझे कोई फ़र्क नही पडे गा, पहले इन्ही बसो मे मॆ घुमता था, लेकिन बच्चे नही माने, उन्हे भारत की हर चीज से प्यार हे, सो हम ने सोचा घर के पास से बस पकडे गे तो जगह नही मिले गी, क्यो ना आजाद पुर बस आड्डे से बस पकडे( पता नही मेने नाम भी सही लिया हे या नही ) तो जनाब हम सब बस अड्डॆ पर पहुच गये,जहा एक व्याक्ति सब कॊ हिसार रोहतक जाने के लिये बस की ओर इशारा कर रहा था, हम ने पहले उसे नमस्ते की फ़िर पुछा बस मे जगह तो मिलेगी बॆठने के लिये,उस भले आदमी ने हमे बस मे बच्चो से पुछ कर उन की मनपसंद जगह पर बिठा दिया, ओर बच्चे सब ओर मजे से देख रहे थे, तभी नारियाल वाला आया, उस से नारियाल लिया, फ़िर कोई पत्रिका वाला ,ओर कई ओर लोग आते रहे, ओर बच्चे खुशी से उन्हे देखते रहे,
फ़िर बस चली तो थोडी देर मे वही व्याक्ति( कंडेकटर) टिकट टिकट बोलते हुये हमारे पास से गुजरा, तो मेरे बडे बेटे ने उस से रोहतक के चार टिकट मागें अपनी हिन्दी मे (इन दोनो की हिन्दी स्पॆशल हे )तो कंडेकटर ने तीन टिकट दिये, ओर बाकी पेसे , उस के पास खुले पेसे नही थे, सो उसने हमे बीस रुपये ज्यादा लोटा दिये, मेने कहा भाई आप यह रुपये अभी रख लो जब होगे तो हमे हमारे पेसे लोटा देना, हमे ज्यादा पेसे मत दो कही भुल गये तो ? लेकिन उस आदमी ने हमारी बात नही मानी,ओर अब तक हम रोहतक रोड पर (पंजाबी बाग) के आस पास पहुच गये थे, ओर बस मे खुब भीड हो गई थी,लेकिन बच्चो को मजा आ रहा था, फ़िर बातो बातो मे कब हम रोहतक पहुच गये पता भी नही चला,ओर जल्दी जल्दी मे बस से उतरे,बस कंडेकटर ने बच्चो को टाटा भी की थोडी देर बाद मुझे याद आया अरे मे तो ज्यादा पेसे ले आया १७, १८ रुपये, दिल मे बहुत अफ़सोस भी हुया, ओर दो दिन तक उसी समय जा कर इन्तजार किया लेकिन वो आदमी नही मिला,ओर वो रुपये मेरे पास आज भी वेसे ही पडे हे
राज साहब,
ReplyDeleteरोहतक कैसे आना हुआ । मेरा ननिहाल रोहतक में है और मुझे रोहतक बेहद पसन्द है । मैं काफ़ी समय टिप्पणी नहीं कर पाता लेकिन आपकी माता सीता से सीख वाली सीरीज बहुत पसन्द आयी । इसके अलावा आपके सभी लेख अच्छे लगते हैं ।
बस कण्डक्टर विलक्षण रहा होगा। अन्यथा अब तक आप याद कैसे रखते।
ReplyDeleteachchhe log bahut kam milte hai.
ReplyDeletevah bhi ek achchha aadmi hai
bahut achha anubhav raha
ReplyDeleteशुक्र है आपके पास वो पैसे रहे ओर बच्चो को इस adventourous यात्रा का आनंद आया ,वरना हम कभी दिल्ली से मेरठ आने की बस मे बैठते (उस वक़्त वैसे ही सूरत से देल्ही की १८ घंटे की यात्रा से उब चुके होते थे ..)बराबर वाला पूछता "भइया कौन जात हो ? तो आप हरियाणा से है राज जी.....
ReplyDeleteशायद बच्चो के चेहरो की मुस्कान को वो कंडक्टर भी नही भुला होगा.. और आज़ाद पूर के उसी बस स्टॅंड पर वैसे ही बच्चो को उनकी मनपसंद सीट अब भी देता होगा.. जो उसने रखे वो उसकी और जो रह गये आपके पास वो आपकी यादें थी.. उन्हे सिर्फ़ पैसे मत कहिए.. आपके पास ज़िंदगी के कई तज़ुर्बो के साथ अच्छे संस्मरण भी होंगे पढ़वाते रहिएगा... हम इन्तेज़ार करेंगे..
ReplyDeleteविलुप्त होती इस प्रजाति के लोग भी मिल जाते हैं कभी कभी...
ReplyDeletehttp://ojha-uwaach.blogspot.com/2008/01/ii.html
२० रुपये से किसी की जिंदगी तो नहीं बनती ... पर उसी २० रुपये से आज तक आप उसको याद रखे हुए हैं, उन २० रुपयों की कीमत कहीं ज्यादा है...
भले और बुरे लोग सब जगह मिलते हैं। पर एक बात समझ न आई। टिकट मांगे चार थे दिए तीन। एक का क्या हुआ?
ReplyDeleteबस अड्डे का नाम आपने बिल्कुल ठीक लिखा है। आपका ये संस्मरण बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteआप सभी का धन्यवाद,ग्यान दत्त जी, मेने उस के पेसे देने हे इस लिये याद रहा,वर्ना तो कितने लोग मिलते हे,सब याद भी नही रहते, दिनेश जी बच्चो की टिकट उस ने आधी आधी ओर मेरी ओर मेरी वीवी की टिकट सब मिला कर ३, लेकिन हमने ४ सीट ली थी उस हिसाब से मेने ४ टिकट लेने थे.अनुराग जी हम पंजाब से हे, लेकिन १९७१ मे मेरे माता पिता ने रोहतक मे अपनी कोटी बनबाई थी, मे रोहतक मे ५,७ साल रहा हु,नीरज भाई रोहतक मे हम सुभाष नगर मे रहते हे जो मडल्टाउन के साथ मे ही लगा हे,कुश भाई धन्या वाद आप की बात सही हे बह आनमी बच्चो के साथ बहुत खुश था ओर इन्हे इन की गल्त हिन्दी पर सम्झाता भी था,ममता जी धन्यवाद यादे कई बार धुधली हो जाती हे, फ़िर बहुत सोचना पडता हे.महक जी महाशाक्ति ओर अभिषेक जी आप का भी धन्यवाद मुझे हर तरह के लोग मिले हे, जो बहुत बुरे होते हे मे उन्हे भुल जाता हु.अभी मेरे बच्चे भारत की रेल मे नही बेठे, जब भी अगली बार आगे तो ग्यान जी को ही पकडे गे.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा पढ़ कर,जिन्दिगी हर कदम पर एक नया तजरबा देती है..
ReplyDeleteरोचक घटना है, सुन्दर वर्णन है। बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteअगर मैं आपके पास होता तो आपके हाथ चूम लेता... अच्छे लोगों को अच्छे लोग ही मिलते हैं,
ReplyDeleteआपका संस्मरण पढ़ कर दिल खुश हो गया.
बहूत अच्छे हैं आप। आपने वो पैसे अभी तक देने के प्रयास कीये हैं
ReplyDeleteईसी बात पर एक कंडक्टर की घटना याद आ गई।
अभी दो महीने पहले मै अपने दोस्तो के साथ बस(मीनी बस "RTV") से जा रहा था और सब के पैसे उनमे से एक ने नीकाल कर दे दीये कूल 63 रु. देने थे और उसने कंड्क्टर को कम पैसे दीये(रू. 60) और मेरा दोस्त बोला की तीन रूपये बाद मे दे दूंगा और फीर धीरे से हसते हूवे बोला की तीन रुपये भूल जा कभी नही देने वाला। फीर वो कंडक्टर बीना कूछ बोले आगे नीकलने लगा लभी साईड मे एक सज्ज्न बैठे थे उनहोने कहा की तूमने उसे तो 70 रू. दीये है पैसे तो वो तूमहे देगा और सारे हसने लगे (हस्ने वालो मे मै भीथा) बाद मे कंडक्टर ने पैसे मांगने पर वापस कर दीये और हमने उसे घर पर आ के उसके पैसे दे दीये
यह बात याद आते ही हस हस के लोटपोट हो जाता हूं
ReplyDeletePad kar ateev prasanta hui, anyatha mere man mein dar he laga rehta hai ki jane videshi (bhartiye ya abhartiye) humare desh ke prati kaisa anubhav lekar lotenge.
ReplyDeleteRailway, Bus Stand ya Airport par uterte hi jis prakar taxi auto wale swarion ko gher leten hain bahut kasht hota hai.
Kair un conductor shahib ko jo darasal bharat ke ambassdor he the ka lakh lakh abhiwadan aur sath he aap ka jinhone apne kayee khate mithe anubhavon se Bharat ke prati mitha anubhav he likha :)