क्रमश से आगे...
शेख मखमूर
इस पुरजोश, तकरीर ने सरदारों के हौसले उभार दिये। उनकी आंखें लाल हो गईं, तलवारें पहलू बदलने लगीं और कदम बरबस लड़ाई के मैदान की तरफ बढ़े। शेख मखमूर ने तब फकीरी बाना उतार फेंका, फकीरी प्याले को सलाम किया और हाथों में वही तलवार और ढाल लेकर, जो किसी वक्त मसऊद से छीन गये थे, सरदार नमकखोर के साथ-साथ सिपाहियों और अफसरों का दिल बढ़ाते शेरों की तरह बिफरता हुआ चला। आधी रात का वक्त था, अमीर के सिपाही अभी मंजिलें मारे चले आते थे। बेचारे दम भी न लेने पाये थे कि एकाएक सरदार नमकखोर के आ पहुँचने की खबर पाई। होश उड़ गये और हिम्मतें टूट गईं। मगर अमीर शेर की तरह गरजकर खेमे से बाहर आया और दम के दम में अपनी सारी फौज दुश्मन के मुकाबले में कतार बॉँधकर खड़ी कर दी कि जैसे माली था कि आया और इधर-उधर बिखरे हुए फूलों को एक गुलदस्ते में सजा गया।
दोनों फौजें काले-काले पहाड़ों की तरह आमने-सामने खड़ी हैं। और तोपों का आग बरसाना ज्वालामुखी का दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। उनकी धनगरज आवाज से बला का शोर मच रहा था। यह पहाड़ धीरे धीरे आगे बढ़ते गये। यकायक वह टकराये और कुछ इस जोर से टकराये कि जमीन कॉँप उठी और घमासान की लड़ाई शुरू हो गई। मसऊद का तेगा इस वक्त एक बला हो रहा था, जिधर पहुँचता लाशों के ढेर लग जाते और सैकड़ों सर उस पर भेंट चढ़ जाते।
पौ फटे तक तेगे यों ही खड़का किये और यों ही खून का दरिया बहता रहा। जब दिन निकला तो लड़ाई का मैदान मौता का बाजार हो रहा था। जिधर निगाह उठती थी, मरे हुओं के सर और हाथ-पैर लहू में तैरते दिखाई देते थे। यकायक शेख मखमूर की कमान से एक तीर बिजली बनकर निकला और अमीर पुरतबीर की जान के घोंसले पर गिरा और उसके गिरते ही शाही फौज भाग निकली और सरदारी फौज फतेह का झण्डा उठाये राजधानी की तरफ बढ़ी।
औरत, जो बड़ी मुद्दत से गुलामी की सख्तियॉँ झेल रहे थे, उसकी अगवानी के लिए निकल पड़े। सारा शहर उमड़ आया। लोग सिपाहियों को गले लगाते थे और उन पर फूलों की बरखा करते थे कि जैसे बुलबुलें थीं जो बहेलिये के पंजे से रिहाई पाने पर बाग में फूलों को चूम रही थीं। लोग शेख मखमूर के पैरों की धूल माथे से लगाते थे और सरदार नमकखोर के पैरों पर खुशी के ऑंसू बहाते थे। अब मौका था कि मसऊद अपना जोगिया भेस उतार फेंके और ताजोतख्त का दावा पेश करे। मगर जब उसने देखा कि मलिका शेर अफगन का नाम हर आदमी की जबान पर है तो खामोश हो रहा। वह खूब जानता था कि अगर मैं अपने दावे को साबित कर दूँ तो मलिका का दावा खत्म हो जायेगा। मगर तब भी यह नामुमकीन था कि सख्त मारकाट के बिना यह फैसला हो सके। एक पुरजोश और आरजूमन्द दिल के लिए इस हद जब्त करना मामूली बात न थी। जब से उसने होश संभाला, यह ख्याल कि मैं इस मुल्क का बादशाह हूँ, उसके रगरेशे में घुल गया था। शाह बामुराद की वसीयत उसे एक दम को भी न भूलती थी। दिन को यह बादशाहत के मनसूबे बाँधता और रात को बादशाहत के सपने देखता। यह यकीन कि मैं बादशाह हूँ उसे बादशाह बनाये हुए था। अफसोस, आज वह मंसूबे टूट गये और वह सपना तितर बितर हो गया। मगर मसऊद के चरित्र में मर्दाना जब्त अपनी हद पर पहुँच गया था। उसने उफ तक न की, एक ठंडी आह भी न भरी, बल्कि पहला आदमी, जिसने मलिका के हाथों को चूमा और उसको सामने सर झुकाया, वह फकीर मखमूर था।
क्रमश...
बढ़िया है, जारी रखिये.
ReplyDeletepadh rahey hain Sir....attendence darz kara di hai.
ReplyDeletelijeye hamari bhihaziri note kar le.
ReplyDeleteआज की कड़ी ने अगली कड़ी की उत्सुकता जगा दी है।
ReplyDeleteवाह ! मज़ा आ गया..
ReplyDeleteरोचक और सानदार है
ReplyDeletesachmuch rochak katha hai, agli kadi ki pratiksha hai.
ReplyDeleteआप मेरा कहा माने तो एक pdf फाइल बना डालिए इस पूरी श्रृंखला का... एक साथ पढने का मन है... अगर आपने ऐसा किया तो मुझे फाइल जरूर मेल करें... धन्यवाद.
ReplyDeleteआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद,
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