क्रमश से आगे...
स्वामिनी
कई महीने बीत गये प्यारी के अधिकार मे आते ही उस घर मे जैसे वसंत आ गया। भीतर-बाहर जहॉं देखिए, किसी निपुण प्रबंधक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिन्ह दिखते थे। प्यारी ने गृहयंत्र की ऐसी चाभी कस दी थी कि सभी पुरजे ठीक-ठाक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, घी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता प्यारी न खुद विश्राम लेती है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में ऐसी बरकत आ गई है कि जो चीज मॉंगो, घर ही में निकल आती है। आदमी से लेकर जानवर तक सभी स्वस्थ दिखाई देते हैं। अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है। हॉं अगर कोई रूग्ण और चिंतित तथा मलिन वेष में है, तो वहप्यारी है; फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहॉं तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात रहे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो, तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों में भी अब उतना अपनापन नहीं।प्रात:काल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और भुन्नाई हुई बोली—लेकर इसे भी भण्डारे में बंद कर दे।प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर से कहा—कह तो दिया, हाथ में रूपये आने दे, बनवा दूंगी। अभी ऐसा घिस नहीं गया है कि आज ही उतारकर फेंक दिया जाए।दुलारी लड़ने को तैयार होकर आयी थी। बोली—तेरे हाथ मं काहे को कभी रूपये आऍंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़-तोड़ रखने में मजा आता है न?प्यारी ने हॅंसकर कहा—जोड-तोड़ रखती हूँ तो तेरे लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा अनन्त कब का टूटा पड़ा है।दुलारी—तुम न खाओ-न पहनो, जस तो पाती हो। यहॉं खाने-पहनने के सिवा और क्या है? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा—रूपये न हों, तो कहॉँ से लाऊं?दुलारी ने उद्दंडता के साथ कहा—मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ।इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हँसकर सहती थी। स्वामिनी का यह धर्म है कि सबकी धौंस सुन ले और करे वहीं, जिसमें घर का कल्याण हो! स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी किसी का असर न होता। उसकी स्वामिनी की कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होती थी। वह गृहस्थी की संचालिका है। सभी अपने-अपने दु:ख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है, वही होता है। इतना उसे प्रसन्न करने के लिए काफी था। गॉँव में प्यारी की सराहना होती थी। अभी उम्र ही क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाए देती है। कभी किसी से हँसती-बोलती भी नहीं, जैसे काया पलट हो गई।कई दिन बाद दुलारी के कड़े बनकर आ गए। प्यारी खुद सुनार के घर दौड़-दौड़ गई।संध्या हो गई थी। दुलारी और मथुरा हाट से लौटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गई। चटपट कड़े पहले और दौड़ी हुई बरौठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगी। प्यारी बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसकी ऑंखें सजल हो गईं। दुलारी उससे कुल तीन ही साल तो छोटी है! पर दोनों में कितना अंतर है। उसकी ऑंखें मानों उस दृश्य पर जम गईं, दम्पति का वह सरल आनंद, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा—प्यारी की टकटकी-सी बँध गई, यहॉँ तक तक दीपक के धुँधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गए और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला ऑंखों के सामने बार-बार नए-नए रूप में आने लगी।सहसा शिवदास ने पुकारा-बड़ी बहू! एक पैसा दो। तमाखू मॅंगवाऊं।प्यारी की समाधि टूट गई। ऑंसू पोंछती हुई भंडारे में पैसा लेने चली गई।एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गॉंव में सबसे सम्पन्न समझा जाए, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए और कभी बैलों की नयी गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बैलों का नयी गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बिमारों की दवा-दारू के लिए रूपये की जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरब्योंत करने पर भी काम न चलता तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज निकाल देती। और चीज एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खर्चों को टाल जाती; पर जहॉं इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गॉंव में हेठी हो गई, तो क्या बात रही! लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारी के पास भी गहने थे। दो-एक चीजें मथुरा के पास भी थीं, लेकिन प्यारी उनकी चीजें न छूती। उनके खाने-पहनने के दिन हैं। वे इस जंजाल में क्यों फॅंसें!दुलारी को लड़का हुआ, तो प्यारी ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया। शिवदास ने विरोध किया-क्या फायदा? जब भगवान् की दया से सगाई-ब्याह के दिन आऍंगे, तो धूम-धाम कर लेना।प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता! बोली-कैसी बात कहते हो दादा? पहलौठे लड़के के लिए भी धूम-धाम न हुई तो कब होगी? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी? नाम बड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं मॉंगती। अपना सारा सरंजाम कर लूंगी।‘गहनों के माथे जाएगी, और क्या!’ शिवदास ने चिंतित होकर कहा-इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा। कितना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई किसी के नहीं होते। अपने पास दो चीजें रहेंगी, तो सब मुंह जोहेंगे; नहीं कोई सीधे बात भी न करेगा।प्यारी ने ऐसा मुंह बनाया, मानो वह ऐसी बूढ़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली-जो अपने हैं, वे भी न पूछें, तो भी अपने ही रहते हैं। मेंरा धरम मेंरे साथ है, उनका धरम उनके साथ है। मर जाऊँगी तो क्या छाती पर लाद ले जाऊंगी?धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया गया। बारही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ। लोग खा-पीकर चले गये, प्यारी दिन-भर की थकी-मॉंदी ऑंगन में एक टाट का टुकड़ा बिछाकर कमर सीधी करने लगी। ऑंखें झपक गई। मथुरा उसी वक्त घर में आया। नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी। गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गई थी, मुंह भी उतर गया था, पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छाई हुई थी। सौर के संयम और पौष्टिटक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे ऑंगन में देखते ही समीप आ गया और एक बार प्यारी की ओर ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुंह चूमने लगा।आहट पाकर प्यारी की ऑंखें खुल गई; पर उसने लींद का बहाना किया और अधखुली ऑंखों से यह आनन्द-क्रिड़ा देखने लगी। माता और पिता दोनों बारी-बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे। कितना स्वर्गीय आनन्द था! प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनी को भूल गई। जैसे लगाम मुखबद्ध बोझ से लदा हुआ, हॉंकने वाले के चाबुक से पीडित, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवाज सुनकर कनौतियॉं खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दबी हुई हिनहिनाहट से उसका जवाब देता है, कुछ वही दशा प्यारी की हुई। उसका मातृत्व की जो पिंजरे में बन्छ, मूक, निश्चेष्ट पड़ा हुआ थ्ज्ञा, समीप से आनेवाली मातृत्व की चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिनताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा।मथुरा ने कहा—यह मेरा लड़का है।दुलारी ने बालक को गोद में चिपटाकर कहा—हॉं, क्यों नहीं। तुम्हीं ने तो नौ महीने पेट में रखा है। सॉँसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।मथुरा—मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता। चेहरा-मोहरा, रंग-रूप सब मेरा ही-सा है कि नहीं?दुलारी—इससे क्या होता है। बीज बनिये के घर से आता है। खेत किसान का होता है। उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है।मथुरा—बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जाएगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूंगा।दुलारी—मेरा लड़का पढ़े-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पाएगा। तुम्हारी तरह दिल-भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन का कहना है, कल एक पालना बनवा दें।मथुरा—अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़कर काम भी न करना।दुलारी—यह महारानी जीने देंगी?मथुरा—मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है? हमीं लोगों के लिए मरती है। भैया होते, तो अब तक दो-तीन बच्चों की मॉं हो गई होती।प्यारी के कंठ में ऑंसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह कॉंप उठी। अपना वंचित जीवन उसे मरूस्थल-सा लगा, जिसकी सूखी रेत पर वह हरा-भरा बाग लगाने की निष्फल चेष्टा कर रही थी।कुछ दिनों के बाद शिवदत्त भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेती का काम मजदूरों पर आ पड़ा। मथुरा मजदूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतंत्र रूप से काम लेने का कभी अवसर न मिला।
क्रमश..
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नमस्कार,आप सब का स्वागत हे, एक सुचना आप सब के लिये जिस पोस्ट पर आप टिपण्णी दे रहे हे, अगर यह पोस्ट चार दिन से ज्यादा पुरानी हे तो माडरेशन चालू हे, ओर इसे जल्द ही प्रकाशित किया जायेगा,नयी पोस्ट पर कोई माडरेशन नही हे, आप का धन्यवाद टिपण्णी देने के लिये