यह बात बहुत ही पुरानी है, यानि जब हम बहुत छोटे से थे, यानि ९, १० वर्ष के रहे होगे, उस समय हम आगरा मै ताजगंज के इलाके मै रहते थे, पिता जी C.P.W.D कार्यरत थे,पहले पिता जी आगरा गये फ़िर मुझे ओर मां को बुलाया, वहा मकान मिलना उन दिनो बहुत कठिन था, लोग बहुत धार्मिक थे आगरा के ओर उन का मानाना था की पंजाबी लोग मांस मच्छली, ओर प्याज खाते है. पहले हमे एक बहुत ही बडा मकान मिला, जिस मै काफ़ी कमरे थे, लेकिन आसपास किसी से जान पहाचान ना हो सकी , शायद सब बारह्मन थे, इस बारे मुझे ज्यादा याद नही.
फ़िर एक साल के बाद हम ताज गंज के ही दुसरे इलाके मै एक बडे मकान मे एक छोटे से कमरे को किराये पर लिया, ओर सोचा जब कोई अच्छा मकान मिला तो बदल लेगे, लेकिन फ़िर इस बडे मकान मै इतना प्यार ओर अपना पन मिला कि हम उस छोटे से कमरे मै ही रहे...
उस बडे मकान मै मकान मालिक के अलावा भी कई अन्य किराये दार थे, सब से बडी बात उस मै बच्चे बहुत थे, ओर फ़िर आसपास के बच्चे भी हमारे आंगन मै आ जाते थे, करीब १५, २० बच्चे ओर सभी मिल कर खेलते थे, आंगन बहुत बडा था, ओर कोई रोक थाम भी नही इस लिये बहुत मजा आता था.
एक बार गर्मियो के दिन थे, तो सभी बडो ने ( महिलाओ ) कहा कि आज गर्मी बहुत है, इस लिये घर का मेन दरवाजा बन्द कर दिया ओर हम सब को बोला गया कि शाम होने से पहले कोई बाहर ना जाये बस घर के अंदर ही खेलना है, गर्मियो की छुट्टिया थी, पढाई वगेरा थी नही सारा दिन खेल खेल कर, थक गये अब नया खेल कया खेले ??
हम लडको ने जुते के खाली डिब्बे मै टार्च चला कर, ओर कुछ फ़िल्मो के टुकडो को खाली डिब्बे के आगे दो लेंस लगा कर फ़िर टार्च जला कर उन फ़ोटो को देखने की कोशिश कि, लेकिन कभी कामजाब होते तो कभी नही, ओर हमारे इस खेल मे अब सभी बच्चे ओर सभी छोटी लडकिया भी शामिल हो जाती, ओर शांति से बेठ कर सब काम देखते.
जब हम ने बहुत कोशिश की ओर काम याब नही हुये, तो उस डिब्बे को फ़ोटो खीचने वाला केमरा बना डाला, ओर फ़िर पता नही कहां से दिमाग मै एक नयी ट्रिक आई ओर हम चार जने तीन लडके ओर एक लड्की फ़ोटो गराफ़्र बन गये सब से पहले उस लडकी की फ़ोटो खींची, पहले तो वो लडकी बहुत जोर जोर से रोई, फ़िर हम सब ने उसे प्यार से, डरा धमाका कर चुप करवाया,फ़िर वो लडकी बहुत मजे लेकर हंसने लगी, ओर फ़िर सब बच्चो की फ़ोटु खिचने के लिये वो हमारे साथ तेयार हो गई.
हम जिस बच्चे की भी फ़ोटू खींचते उस मे से काफ़ी बच्चे या तो बहुत जोर से रोते, ओर उस बच्चे के रोते ही आधे बच्चे उस का मुंह बन्द करते थे, बाकी बच्चे कमरे मै खुब जोर से शोर मचाते, ताकि बाहर बेठी मांये हमे डांटे नही, ओर जिस बच्चे की फ़ोटू खीच गई उसे बाहर जाना मना होता था, ओर जिस की फ़ोटू अभी खीचनी है, वो कमरे से बाहर खडा होता था, ओर जिस बच्चे की फ़ोटू खिच गई वो थोडी सी देर बाद बहुत खुश रहता ओर बड चड कर दुसरे की फ़ोटू खीचने का इन्तजार करता, ओर जिस की फ़ोटू खीच जाती उसे एक सिगरेट की खाली डिब्बी पर ( खोल को काट कर दो हिस्से किये जाते थे उस डिब्बी के) पर हाथ से उलती सीधी लकीरे खीच कर उस की फ़ोटू दे दी जाती थी.
अब यह नया खेल सभी बच्चो को पसंद आया, लेकिन एक बच्चा एक बार ही फ़ोटू खीचवाता, फ़िर धीरे धीरे आसपाडोस के बच्चो की फ़ोटू भी खींची, अब हमारी मांये भी तंग हो गई की कही तो सारी दोपहर को बच्चो को चुप कराना मुश्किल था, ओर अब सारे बच्चे कमरे मै अंदर चुप चाप बेठे क्या करते है ?क्योकि पहले तो किसी बच्चे की चीख की आवाज आती है, फ़िर थोडी देर रोने की... ओर फ़िर खुब शोर.....
फ़िर हमारी मांयो ने एक बडी लडकी को पता करने भेजा.... इस लडकी को सारे बच्चे माया दीदी कहते है, ओर हम सब से बहुत बडी थी इस लिये बच्चे डरते भी थे, माया दीदी ने आ कर दरवाजा खटखटाया, तो अन्दर से एक बच्चे ने बोला ठहरो पहले नीना की फ़ोटो खींच ले, तब तुम्हारा ना० आयेगा, फ़िर माया दीदी ने डांट कर बोला तो सब को पता चला की बाहर तो आफ़त खडी है, ओर डरते डरते किसी बच्चे ने स्टुल रख कर दरवाजे की चट्स्कनी खोली, ओर फ़िर दरवाजा, दीदी झट से अंदर आई ओर बोली अरे यह अंधेरा क्योकर रखा है..... राम राम इतने सारे बच्चे... ओर झट से बत्ती जला कर सारे पर्दे हटा दिये, मेरा कान मरोड कर बोली बोलो सब क्या कर रहे थे, वरना खुब पिटाई होगी...
मेने ओर अन्य बच्चो ने जब देखा की अब इस वला से बचने का कोई उपाय नही तो मेने रोते रोते कहा पहले मेरा कान छोडो दर्द होता है, फ़िर बताऊगां, लेकिन माया दीदी ने ओर जोर से कान मोड दिया ओर बोली जल्दी बताओ, तो मेने रोते हुये कहा कि हम तो फ़ोटो फ़ोटो खेल रहे है, अच्छा कहा है तुमहारा केमरा, एक लडके ने झट से चारपई के नीचे से छेद वाला जुते का डिब्बा निकाल कर दिखाया कि यह रहा केमरा, अब दीदी मजाक मै बोली अरे वाह इतना सुंदर केमरा किस ने बनाया है, मेने झट से कहा हम ने, दीदी बोली तो बच्चू मेरी फ़ोटो खींच तो मानू तेरे इस केमरे को...
अब हम मै इतनी हिम्मत नही थी कि उस माया दीदी की फ़ोटॊ खिंचते, क्योकि उस फ़ोटो खिचने के बाद हमारा क्या हाल होगा यह हम क्या सभी बच्चे जानते थे, हमारे साथ बच्चो ने भी दीदी को मना कर दिया, तो दीदी ने कहा कि या तो मेरी फ़ोटो खींचो वरना मै तुम्हारा यह केमरा बाहर तोड कर फ़ेक दुंगी.
अब सब बच्चो ने आंखो आंखो मे सलाह की , परदे लग गये, सब ने अपनी अपनी पोजिशान ले लि, ओर दीदी से कसम ऊठवाई की फ़ोटो खीचने के बाद वो किसी की पिट्टाई नही करेगी, ओर किसी को नही बतायेगी, कि हम ने फ़ोटो केसे खींची, दीदी को भी अब बहुत अजीब सा लगा लेकिन उन्हे कसम तो खानी ही पडी, फ़िर एक्सन कहते ही टार्च की लाईट जल के बुझी, ओर दीदी की चीख निकल गई, लेकिन बच्चो ने झट से दीदी का मुंह नन्हे नन्हे हाथो से बन्द कर दिया, ओर कुछ पल बाद दीदी जोर जोर से हंसने लगी, अब हम सब भी दीदी के संग खुब हंसे, फ़िर दीदी ने प्यार से हम सब के सर पर प्यार दिया ओर बोली, अब तुम लोग सब की फ़ोटो खींचना,
शेष फ़िर....
शायद शनिवार को मै आप लोगो को टिपण्णी ना दे पाऊं, क्योकि शनिवार सुबह पांच बजे मेने घर से ८०० कि मी दुर जाना है फ़िर वहां से दोपहर को वापसी भी है, यानि १६०० किमी आना जाना, अगर थकावट ना हुयी तो आप के चिठ्ठे जरुर पढूं गा, वरना माफ़ी चाहऊगां ओर इस बार ताऊ की पहेली भी नही बूझ पाऊगां वरना जीत पक्की थी.
चलिये इस बचपन की कहानी का अगला भाग जल्द ही दुगां
आप सभी को इस सप्ताह के अन्त की खुब सारी शुभकांनाऎ, आप सभी का सप्ताह का यह अन्त बहुत सुंदर बीते.न
नमस्कार.... अभी कल का दिन मै यही हुं
आज वाला बचपन का किस्स्सा बहुत भला लगा राज भाई
ReplyDelete"बचपन के दिन भी क्या दिन थे वाला गीत याद आ गया -
ऐसी निर्मल हँसी जीवन भर मिले
तो स्वर्ग मिले
आपकी यात्रा सुखद हो
- लावण्या
bachpan ki ye photowali yaad bhi khub rahi,mast,yatra safal rahe.
ReplyDeleteहमने कभी सोचा ही नहीं था की बचपन की ऐसी हरकतों को लिख भी सकते हैं. आपने तो कमाल ही कर दिया. आभार.
ReplyDeleteबचपन की आप्की ये यादे बहुत खुशनुमा लगी........बचपन to बीत जाता है पर ये सुखद यादें हमेशा ही बचपन के उन दिनों को सहला जाती है.."
ReplyDeleteRegards
आप ने बचपन सामने ला कर खड़ा कर दिया।
ReplyDeleteयादों के सफ़र की अगली कड़ी का इन्तजार है
ReplyDeleteहा हा ये फोटोग्राफी तो बड़ी कमाल रही.. कई दिनो बाद आप पुराने रूप में नज़र आए.. ऐसे कई केमरे हमने भी बनाए थे.. बस उससे मैं फ़िल्मो की शूटिंग करता था..
ReplyDeleteआपका ये "बालकांड" पढकर तो मन में यही विचार आ रहे हैं कि 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए वो दिन'
ReplyDeleteअरे वाह, मजा आ गया आपकी फोटोग्राफरी के बारे में जानकर।
ReplyDeleteबचपन के दिन होते बहुत प्यारे। कहीं फोटोग्राफरी और कहीं....। एक अच्छी पोस्ट जो बचपन के दिनों में ले गई।
ReplyDeleteबचपन के दिन भी क्या दिन थे !
ReplyDeleteबचपन भी क्या खूब होता है कितनी यादें होती हैं।।।।
ReplyDeleteबचपन के दिन भी क्या दिन थे? बहुत लाजवाब रहा ये संस्मरण.
ReplyDeleteरामराम.
मजेदार,
ReplyDeleteवैसे एक बात समझ में नहीं आई, माया दीदी चीखी क्यों?
वैसे कैमरे और प्रोजेक्टर हमने भी बनाये। और तो और चालू रेडियो और चालू अलार्म घड़ी को रिपेयर भी की है, परिणाम का अंदाजा आप लगा ही सकते हैं :(
शायद आजकल के बच्चो के नसीब में ये सब सुख लिखे ही नहीं। वे या तो टीवी से सर फड़ेंगे या फिर वीडियो गेम से।
बचपन के किस्से वाकई लाजवाब हैं...
ReplyDeleteबचपन तो बचपन था भाईसाहब.... सच क्या बचपन था.... आपने जिस सहजता से संस्मरण लिखा मैं शायद लिख ना पाऊं... आपको बधाई..
ReplyDeleteबचपन के आविष्कार कमाल होते थे . न जाने क्या क्या और बनाया आपने फिर कभी बताये
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण ...मज़ा आया पढ़कर!
ReplyDeleteवैसे एक बात समझ में नहीं आई, माया दीदी चीखी क्यों?
ReplyDeleteसागर नाहर जी यह जबाब अगले लेख मै....
आप सब के पधारने के लिये धन्यवाद
बचपन कि याद हूं...
ReplyDeleteबहुत बढीया होती है पर लगता है अब तो बडा हो गया।
ateet sadaiv sunder he hota hai aur jab wo bachpan ki baat ho to sone pe suhaga. sunder!
ReplyDeleteबचपन के मासूम दिनों में आपके साथ पढ़ते-पढ़ते हम भी उन दिनों की फोटू ही तो खींच रहे हैं.
ReplyDeleteबचपन की यादें साकार हो गईं।
ReplyDeleteआपने बचपन की गलियां याद दिला दीं। ताजगंज, सदर, नौलक्खा, प्रतापपुरा, नामनेर, छीपीटोला...
ReplyDeleteमजा आ गया राज भाई। कैमरा संभाल कर रखा है या नहीं।
बचपन की यादें ताजा हो गयीं. बिना लेंस का केमरा, माचिस की डिब्बी से टेलीफोन और राकेट हमने भी बनाया था. माया दीदी की चीख का रहस्य जानने की उत्सुकता है.
ReplyDeleteचीख का रहस्य अभी भी बाकी है!
ReplyDelete(gandhivichar.blogspot.com)
आपके बचपन के किस्सेने मुझे भी अपने बचपन की याद दिला दी । हम भी अखबार की लंबी पट्टी पर अखबार में से ही काटे फोटो चिपका कर ऱोल को जूते के डिब्बे में दो बांस की डंडियों पर घुमाकर सिनेमा देखा और दिखाया करते थे । तब हम लोग कितने रिसोर्सफुल हुआ करते थे, बिना लागत के कितने खेल खेल लेते ते और मजा भी खूब आता ।
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