चिंतन मृग तत्रिष्णा
आज के विचारो का मंथन यानि एक चिंतन, भारत क्या आज पुरी दुनिया मै लोग अन्दर से दुखी है, वह चाहै कोई करोड पति है,या फ़िर कलर्क, ओर जो सुखी है वह अपने मै मस्त है, है ऎसे भी लोग, लेकिन बहुत कम, मानव दुखी है केसे पता चलता है, अरे मंदिरो मे गिरजाघरो मे , मस्जिद मे लोग क्या मागंते है....? भारत मे यह बाबा लोग जो कल तक जेब कतरे थे अपनी दुकान इन्ही दुखी लोगो के कारण तो चमक रहै है,ओर हम जाते है, भटकते हैयहां वहां, लेकिन सुख चेन, मन की शांति हम से उतनी ही दुर भागती है
अगर हम अपने मन की गहराई मे जा कर , इस बात का मनन करे, अपने आप से पुछे कि हे ! मानव तुझे किस वस्तु की तालाश है ? तो हम सब के दिल से एक ही जबाब आयेगा कि सुख ओर शांति की तलाश है! ओर फ़िर हम सोचते है, मै ज्यादा से ज्यादा धन कमा लू तो सुखी होजाऊगां फ़िर मुझे मेरे धन के कारण बहुत यश मिलेगा तो मे ओर भी सुखी हो जाऊगा !लेकिन... इतना कुछ जो अब हमारे पास है कमा कर भी सुख ओर शांति कोसो दुर है, तो सोचता है कही मेरी मेहनत मै कमी रह गई, थोडा ओर कमा लू फ़िर तो सुख ओर शांति मेरे कदमो मै होगी, ओर इसी धुन मे एक मृग तत्रिष्णा की तरह से धन कमाने मे लगा रहता है,लेकिन उसे सुख शांति मिलनी तो क्या उस से ओर दुर होती जाती है.
क्योकि इन सब मै तो सुख शांति है ही नही, सांसारिक मोह माया तो केवल एक तरह का धोखा है, अगर हम मन से सुखी है, तो हमे रेगिस्तान भी गुलिस्थान लगेगा,ओर अगर दुखी है तो गुलिस्थान भी कब्रिस्थान लगेगा, सुखी को चिलचिलाती धुप भी अच्छी लगेगी, दुखी को बसंत भी पतझड सा लगेगा,
क्योकि जेसा हम भीतर से महसुस करते है इस दुनिया को वेसा ही देखते भी है, यहां एक बात तो सिद्ध हो गई की सुख ओर शांति हमारे अंदर से आता है, यानि हमारे अंदर ही है,इस संसार से नही, जेसे हम सो कर उठते है,तो अपने आप को ताजा महसुस करते है, एक नयी स्फ़ुर्ति होती है हमारे अन्दर धन कमाने की,यश मान कमाने की, ओर यह यात्रा ऊर्जा जो कमाने की है यह है बहियात्रा ओर नींद ऊर्जा जो है यह है अंतयात्रा, बाहर जितना बडा ब्रह्रामंड है, उतना बडा ब्रह्रामांड हमारे अंदर भी है, ओर हम बीच मै खडे है,बाहर की तरफ़ यात्रा करेगे तो बस हम चलते ही जायेगे बस यात्रा ओर यात्रा कभी भी मंजिल पर नही पहुच पायेगे, क्योकि हमारा रास्ता बाहर कि तरफ़ नही अन्दर की तरफ़ है, बाहर वाला रास्ता तो गलत है,फ़िर हम सोचते है कि हम सुख की तलाश मे भटक रहै है, यह भी गलत है, हमे सुख नही आनंद की तलाश मे भटकना चाहिये क्योकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिये हम उसे ही सुख समझते है, यह शरीर तो मात्र एक वस्त्र की तरह है, लेकिन जेसे ही हमारी भीतर की यात्रा शुरु होती है वैसे वैसे बाहर की परते छुटती जाती है ओर हम अपने स्वरुप को पहचानने लगते है.ओर फ़िर हमारी मंजिल हमे मिल जाती है.
सब चलता है राज़ जी | सभी सुखी हैं और सभी दुखी हैं | मेरे हिसाब से ये सब नज़रों का धोखा है | आपके नाम से याद आया पिक्चर का डायलोग "मैं ना कहता था गरीबों का राज़ आएगा, लो आ गया है राज़"
ReplyDeleteबेहद गहरी सोच और समग्र चिंतन वाली पोस्ट। सचमुच, हम केवल बाहर-बाहर खुशी ढूंढते हैं- भीतर की ओर झांकने की जहमत नहीं उठाते।
ReplyDeleteउम्दा पोस्ट।
आपने बिल्कुल सही कहा-
ReplyDeleteसुख ओर शांति हमारे अंदर से आता है, यानि हमारे अंदर ही है,इस संसार से नही।
(भाटिया जी, हो सके तो कंमेंटवाले बॉक्स का कलर कुछ बदल कर देखें, अक्षर साफ नजर नहीं आ रहें हैं। धन्यवाद)
हमे सुख नही आनंद की तलाश मे भटकना चाहिये क्योकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिये हम उसे ही सुख समझते है, यह शरीर तो मात्र एक वस्त्र की तरह है, लेकिन जेसे ही हमारी भीतर की यात्रा शुरु होती है वैसे वैसे बाहर की परते छुटती जाती है ओर हम अपने स्वरुप को पहचानने लगते है.ओर फ़िर हमारी मंजिल हमे मिल जाती है.
ReplyDelete"oh, kitna gehra chintan hai or hum isko smej hee nahee paaty, ya yun khen kee sukh or aanad ke bech ka frk bhee smej nahee paaty..... ager is bat ko hum smej lein to jina hee aasan ho jaye, fir na koee dukh na hee chintaa, kha jaye to aankhen koltee yee panktiyan..."bhut accha lga pdh kr..
Regards
बहुत सुन्दरतम लेख ! एक बार जो अन्दर उतर गया फ़िर बाहर नही आया ! कबीर साहब ने कहा -" बूंद समानी समुंद में "... जब बूंद समंदर में गिरी तब तो फ़िर भी बूंद को यह लगता था की उसका कोई वजूद है ! पर जब समंदर ही बूंद के ऊपर गिर पडा तो क्या बचा ? बहुत धन्यवाद इस बात को याद दिलाने के लिए !
ReplyDeleteबड़े भैया जी - पाय लागूं
ReplyDeleteकितनी मधुर बात कह डाली आपने …
वैसे खुशी की ताक में हम भी हैं कि कब वो आये और हम उसे दबोच लें
नानक दुखिया सब संसार ।
ReplyDeletejevan sukh dukh ka ek bandhn hai.dukh thoda jyada hai sukh thoda kam hai .
ReplyDeleteहमे सुख नही आनंद की तलाश मे भटकना चाहिये क्योकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिये हम उसे ही सुख समझते है, यह शरीर तो मात्र एक वस्त्र की तरह है, लेकिन जेसे ही हमारी भीतर की यात्रा शुरु होती है वैसे वैसे बाहर की परते छुटती जाती है ओर हम अपने स्वरुप को पहचानने लगते है.ओर फ़िर हमारी मंजिल हमे मिल जाती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दरतम शिक्षा ! धन्यवाद
बाहर जितना बडा ब्रह्रामंड है, उतना बडा ब्रह्रामांड हमारे अंदर भी है,
ReplyDeleteबहुत बढिया बात कही आपने ! तिवारीसाहब का सलाम !
सही है - कहां कहां भटकते हैं। पर जो है सो अंदर है। वहां झांकने को समय नहीं या वहां झांकना आता नहीं।
ReplyDeleteएक शानदार पोस्ट.....गहरे विचार अपने पीछे छोड़ जाती है
ReplyDeletekaafi gahan chintan!sab dukhi,niraash,kunthit hain,jeene ke mayne,andaaj jo badal gaye hain........sirf daud hai,jitna paisa bana lo.....to n maya ,n ram !
ReplyDeleteहमे सुख नही आनंद की तलाश मे भटकना चाहिये क्योकि हमारा पंचभूतो से बना शरीर इंद्रियो से जुडा है इसलिये हम उसे ही सुख समझते है,
ReplyDeleteमहोदय बहुत ही उत्तम विचार है . इस भौतिक सुखों की चाह रुपी मृगतृष्णा के दौड़ मैं दुनिया भागे जा रही है जिसका की कोई अंत नही है .
आभार राज जी इस ज्ञान के लिए.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteसुख और दुःख दोनों जीवन के अंग होते है . सच कह रहे है राज जी सहमत हूँ. शिक्षाप्रद पोस्ट आभार
ReplyDeleteभारतीय दर्शन यही सीखलाता है अन्तर्मुखी चेतना को जगा कर स्वयम की पहचान करना -पर जो कर पाया वह सब पा गया - अच्छी पोस्ट
ReplyDelete- लावण्या
Duniya me kitna gam hai, mera gam kitna kam hai...Badiya post ke liye aabhar.
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