क्र्मशा से आगे...
नशा
वहाँ एक ठाकुर अक्सर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था, महात्मा गांधी का परम भक्त। मुझे महात्माजी का चेला समझकर मेरा बड़ा लिहाज करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देखकर आया और हाथ बांधकर बोला—सरकार तो गांधी बाबा के चेले हैं न? लोग कहते हैं कि यह सुराज हो जाएगा तो जमींदार न रहेंगे।
मैंने शान जमाई—जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है? यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्या करते है?
ठाकुर ने पिर पूछा—तो क्यों, सरकार, सब जमींदारों की जमीन छीन ली जाएगी। मैंनें कहा-बहुत-से लोग तो खुशी से दे देंगे। जो लोग खुशी से न देंगे, उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं। ज्यों ही स्वराज्य हुआ, अपने इलाके असामियों के नाम हिबा कर देंगे।
मैं कुरसी पर पॉँव लटकाए बैठा था। ठाकुर मेरे पॉँव दबाने लगा। फिर बोला—आजकल जमींदार लोग बड़ा जुलुम करते हैं सरकार! हमें भी हुजूर, अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें, तो चलकर वहीं आपकी सेवा में रहें।
मैंने कहा—अभी तो मेरा कोई अख्तियार नहीं है भाई; लेकिन ज्यों ही अख्तियार मिला, मैं सबसे पहले तुम्हें बुलाऊंगा। तुम्हें मोटर-ड़्राइवरी सिखा कर अपना ड्राइवर बना लूंगा।
सुना, उस दिन ठाकुर ने खूब भंग पी और अपनी स्त्री को खूब पीटा और गॉंव महाजन से लड़ने पर तैयार हो गया।
छुट्टी इस तरह तमाम हुई और हम फिर प्रयाग चले। गॉँव के बहुत-से लोग हम लोगों को पहुंचाने आये। ठाकुर तो हमारे साथ स्टेशन तक आया। मैनें भी अपना पार्ट खूब सफाई से खेला और अपनी कुबेरोचित विनय और देवत्व की मुहर हरेक हृदय पर लगा दी। जी तो चाहता था, हरेक नौकर को अच्छा इनाम दूँ, लेकिन वह सामर्थ्य कहॉँ थी? वापसी टिकट था ही, केवल गाड़ी में बैठना था; पर गाड़ी गायी तो ठसाठस भरी हुई। दुर्गापूजा की छुट्टियॉं भोगकर सभी लोग लौट रहे थे। सेकंड क्लास में तिल रखने की जगह नहीं। इंटरव्यू क्लास की हालत उससे भी बदतर। यह आखिरी गाड़ी थी। किसी तरह रूक न सकते थे। बड़ी मुश्किल से तीसरे दरजे में जगह मिली। हमारे ऐश्वर्य ने वहॉं अपना रंग जमा लिया, मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग रहा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे, जा रहे थे सिकुड़े हुए। पहलू बदलने की भी जगह न थी।
कई आदमी पढ़े-लिखे भी थे! वे आपस में अंगरेजी राज्य की तारीफ करते जा रहे थे। एक महाश्य बोले—ऐसा न्याय तो किसी राज्य में नहीं देखा। छोटे-बड़े सब बराबर। राजा भी किसी पर अन्याय करे, तो अदालत उसकी गर्दन दबा देती है।
दूसरे सज्जन ने समर्थन किया—अरे साहब, आप खुद बादशाह पर दावा कर सकते हैं। अदालत में बादशाह पर डिग्री हो जाती है।
एक आदमी, जिसकी पीठ पर बड़ा गट्ठर बँधा था, कलकत्ते जा रहा था। कहीं गठरी रखने की जगह न मिलती थी। पीठ पर बॉँधे हुए था। इससे बेचैन होकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता। मैं द्वार के पास ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मुंह को अपनी गठरी से रगड़ना मुझे बहुत बुरा लग रहा था। एक तो हवा यों ही कम थी, दूसरे उस गँवार का आकर मेरे मुंह पर खड़ा हो जाना, मानो मेरा गला दबाना था। मैं कुछ देर तक जब्त किए बैठा रहा। एकाएक मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसे पकड़कर पीछे ठेल दिया और दो तमाचे जोर-जोर से लगाए।
उसनें ऑंखें निकालकर कहा—क्यों मारते हो बाबूजी, हमने भी किराया दिया है!
मैंने उठकर दो-तीन तमाचे और जड़ दिए।
गाड़ी में तूफान आ गया। चारों ओर से मुझ पर बौछार पड़ने लगी।
‘अगर इतने नाजुक मिजाज हो, तो अव्वल दर्जे में क्यों नहीं बैठे।‘
‘कोई बड़ा आदमी होगा, तो अपने घर का होगा। मुझे इस तरह मारते तो दिखा देता।’
‘क्या कसूर किया था बेचारे ने। गाड़ी में साँस लेने की जगह नहीं, खिड़की पर जरा सॉँस लेने खड़ा हो गया, तो उस पर इतना क्रोध! अमीर होकर क्या आदमी अपनी इन्सानियत बिल्कुल खो देता है।
’यह भी अंगरेजी राज है, जिसका आप बखान कर रहे थे।‘
एक ग्रामीण बोला—दफ्तर मॉं घुस पावत नहीं, उस पै इत्ता मिजाज।
ईश्वरी ने अंगरेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir!
और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।
यह रचना मुंशी प्रेमचन्द जी की हे.
समाप्त
होली मुबारक हो आपको व आपके पूरे परिवार को...
ReplyDeleteआपको भी होली की बहुत बहुत मुबारकबाद जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया होली पर्व की आपको रंगीन हार्दिक शुभकामना
ReplyDeleteआप को होली की बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteइस प्रस्तुति का आभार. ऐसे ही और लाते रहें.आपको होली बहुत-बहुत मुबारक.
ReplyDeleteआप सभी का बहुत बहुत आभार,ओर होली की शुभकांमनये
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