10/03/08

उद्धार आन्तिम भाग

क्रमश से आगे...
उद्धार
तीन दिन और गुजर गये, पर हजारीलाल कुछ निश्चय न कर सका। विवाह की तैयारियों में रखे जा चुके थे। मंत्रेयी की पूजा हो चूकी थी और द्वार पर बाजों का शोर मचा हुआ था। मुहल्ले के लड़के जमा होकर बाजा सुनते थे और उल्लास से इधर−उधर दौड़ते थे।संध्या हो गयी थी। बरात आज रात की गाड़ी से जाने वाली थी। बरातियों ने अपने वस्त्राभूष्ण पहनने शुरु किये। कोई नाई से बाल बनवाता था और चाहता था कि खत ऐसा साफ हो जाय मानों वहां बाल कभी थे ही नहीं, बुढ़े अपने पके बाल को उखड़वा कर जवान बनने की चेष्टा कर रहे थे। तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और हजारीलाल बगीचे मे एक वृक्ष के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, क्या करुं?अन्तिम निश्चय की घड़ी सिर पर खड़ी थी। अब एक क्षण भी विल्म्ब करने का मौका न था। अपनी वेदना किससे कहें, कोई सुनने वाला न था।उसने सोचा हमारे माता−पिता कितने अदुरदर्शी है, अपनी उमंग में इन्हे इतना भी नही सूझता कि वधु पर क्या गुजरेगी। वधू के माता−पिता कितने अदूरर्शी है, अपनी उमंग मे भी इतने अन्धे हो रहे है कि देखकर भी नहीं देखते, जान कर नहीं जानते।क्या यह विवाह है? कदापि नहीं। यह तो लड़की का कुएं में डालना है, भाड़ मे झोंकना है, कुंद छुरे से रेतना है। कोई यातना इतनी दुस्सह, कर अपनी पुत्री का वैधव्य् के अग्नि−कुंड में डाल देते है। यह माता−पिता है? कदापि नहीं। यह लड़की के शत्रु है, कसाई है, बधिक हैं, हत्यारे है। क्या इनके लिए कोई दण्ड नहीं ? जो जान−बूझ कर अपनी प्रिय संतान के खुन से अपने हाथ रंगते है, उसके लिए कोई दण्ड नहीं? समाज भी उन्हे दण्ड नहीं देता, कोई कुछ नहीं कहता। हाय !यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल दिया। उसके मुख पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्म−बलिदान से इस कष्ट का निवारण करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था।
उसे मृत्यु का लेश−मात्र भी भय न था। वह उस दशा का पहुंच गया था जब सारी आशाएं मृत्यु पर ही अवलम्बित हो जाती है।उस दिन से फिर किसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देखी। मालूम नहीं जमीन खा गई या आसमान। नादियों मे जाल डाले गए, कुओं में बांस पड़ गए, पुलिस में हुलिया गया, समाचार−पत्रों मे विज्ञप्ति निकाली गई, पर कहीं पता न चला ।कई हफ्तो के बाद, छावनी रेलवे से एक मील पश्चिम की ओर सड़क पर कुछ हड्डियां मिलीं। लोगो को अनुमान हुआ कि हजारीलाल ने गाड़ी के नीचे दबकर जान दी, पर निश्चित रुप से कुछ न मालुम हुआ। भादों का महीना था और तीज का दिन था। घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्यवती रमणियां सोलहो श्रृंगार किए गंगा−स्नान करने जा रही थीं। अम्बा स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खड़ी वंदना कर रही थी। पतिगृह में उसे यह पहली ही तीज थी, बड़ी उमंगो से व्रत रखा था। सहसा उसके पति ने अन्दर आ कर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला−−मुंशी दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते है, यह उनके यहां से तुम्हारे लिए तीज पठौनी आयी है। अभी डाकिया दे गया है।यह कहकर उसने एक पार्सल चारपाई पर रख दिया। दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आंखे सजल हो गयीं। वह लपकी हुयी आयी और पार्सल स्मृतियां जीवित हो गयीं, ह्रदय में हजारीलाल के प्रति श्रद्धा का एक उद्−गार−सा उठ पड़ा। आह! यह उसी देवात्मा के आत्मबलिदान का पुनीत फल है कि मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ। ईश्वर उन्हे सद्−गति दें। वह आदमी नहीं, देवता थे, जिसने अपने कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक समर्पण कर दिए।पति ने पूछा−−दरबारी लाल तुम्हारी चचा हैं।अम्बा−−हां।पति−−इस पत्र में हजारीलाल का नाम लिखा है, यह कौन है?अम्बा−−यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे हैं।पति−−तुम्हारे चचरे भाई ?अम्बा−−नहीं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मुझे अथाह जल में डुबने से बचाने वाले, मुझे सौभाग्य का वरदान देने वाले।पति ने इस भाव कहा मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो−−आह! मैं समझ गया। वास्तव में वह मनुष्य नहीं देवता थे।
यह रचना मुंशी प्रेमचन्द जी कीह े
समाप्त

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