12/01/08

सनातन धर्म के संस्कार / रीति-रिवाज भाग १

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टिं से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढ़ती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये।- इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टिं अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत्ं से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बड़ा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है। विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोड़ा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में
1 गर्भाधान,
2 पुंसवन,
3 सीमन्तोन्नयन,
4 जातकर्म,
5 नामकरण,
6 निष्क्रमण,
7 अन्नप्राशन,
8 चूड़ाकर्म,
9 विद्यारंभ,
10 कर्णवेध,
11 यज्ञोपवीत,
12 वेदारम्भ,
13 केशान्त,
14 समावर्तन,
15 विवाह तथा
16 अन्त्येष्टिं ही मान्य है।गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को 'गर्भ संस्कार'
यह रचना मेरे दोस्त श्री आदित्या साहनी जी ने आबू दुबाई से भेजी हे

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