29/02/08

हमारी आदर्श नारिया भाग ३

क्रमश से आगे....
झांसी की रानी
तात्या टोपे रानी को ये खबरे सुनाता तोउनकी आंखों मे स्वराज्य के सपने घूमने लगते। एक दिन तात्या टोपे ने रानी को खबर दी कि सारे उत्तर भारत के सिपाही और जनता आजादी पाने के लिए दीवाने हो उठे है। दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह को वे दिल से अपना राजा मानते है। तात्या ने यह भी बताया कि 31 मई सन 1857 को हर जगह पर विद्रोह की आग भड़क उठेगी। दमभर में अंग्रेजो सत्ता को उखाड़कर फेंक दिया जायेगा ओर स्वदेशी हुकूमत कायम हो जायेगी।रानी को यह योजना पंसदं आई। उन्होने सलाह दी कि वीरता के लिए अपने पर काबू रखना सबसे ज्यादा जरूरी होता है। विद्रोहियों को चाहिए कि जो तारीख तय हुई है, उस तक जैसे भी हो अपने को रोके रहे।
तात्या ने बताया कि गर्मी आते ही जब कमल फूल उठेगें तब देश की संस्कृति के नमूने केरूप मे कमल और मेहनत के नमूने के रूप मे रोटी हर छावनी मे भेजी जायेगी। यह बहादुरों को देश की आजादी के लिए जान की बाजी लगाने का न्यौता होगा।
महारानी को यह बात पसंद आई। अपनी सेना और लडाई के सामान के साथ वह 31 मई के आने की राह देखने लगी।
परन्तु ज्यों-ज्यों तिथि निकट आती गई, सिपहियों का जोश बढ़ता गया। आखिर एक दिन एक सरदार ने आकर रानी को खबर दी की कारतूसों मे चर्बी लगी हुई है, इस बात को लेकर मेरठ छावनी के सिपाहियों ने गोरो पर गोली चला दी। सिपाही मेरठ से चलकर दिल्ली की फौज से जा मिले हैं, उन्होने लालकिले पर कब्जा कर लियाहै ओर बादशाह बहादुरशाह को भारत का शंहशांह घोषित कर दिया है।

महारानी जान गई कि जो हुआ, अच्छा नही हुआ। उन्होने बस इतना कहा, “देखें, हम अपने आदमियों को कबतक रोके रख सकते है!’’
‘‘खलक खुदा का
मुलक बादशाह का
अमल महारनी लक्ष्मीबाई का।’’
झांसी मे यहघोषणा हो रही थी। जो कुछ मेरठ या दिल्ली मे हुआ था, उसकी छाया झांसी पर भी पड़ी थी। सिपाहियो और सरदारों ने अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेका था और महारानी लक्ष्मीबाई को झांसी की रानी घोषित कर दिया गया था।
झांसी मे अंग्रेज बुरी तरह घिर गये थे। कोई और उपाय न देखकर अंग्रेज कप्तान गार्डन महारानी के पास आयां। उसने कहा, ‘‘हम मर्द है, हमें अपनी जान की परवा नही है, परन्तु हमारीस्त्रियों और बच्चों को किसी तरह रक्षा कीजिये।’’
रानी को गार्डन को वचन दिया कि उनका बाल भी बांका नही होगा। तुम लोगो कीस्त्रियों और बच्चों पर कोई भी हाथ नही उठायेगा। तुम उन्हें किले मे भेज दो। गार्डन ने ऐसा ही किया।
सुबह का समय था। रानी दीवान के साथ राज-काज सम्बन्धी बातचीत कर रही थी कि अचानक तोपों और बंदूको की गड़गड़ाहट गूंज उठी। रानी उठकर महल के बाहर आई। एक सरदार ने उन्हे बताया कि मतवाले सिपाहियों ने अंग्रेजस्त्रियों-बच्चों को कत्ल कर डाला है। महल के सामने सैकड़ों सिपाही जमा थे। कुछ के हाथों मे खून से भीगी हुई तलवारें थी, कुछ भरी हुई बंदूके हाथ मे लिये हुए थे। सबकी आंखों मे हिसा नाच रही थी। सबके सिर पर खून सवार थां।
रानी ने घृणा से उन सबकी ओर देखा और कहा, ‘‘नादनों, तुम नहीं जानते हो कि तुमने क्या कर डाला है।झांसी को इस पाप काफल भोगना पड़ेगा। अब भी चेतो। हिंसा से बाज आओ।’’
मगर वहां सुनता कौन ? सरदार झांसी को कही लूटने पर कमर कसे हुए थे। रानी ने गरजकर कहा, ‘‘खबरदार, जो मेरे जीते-जी झांसी मे लूटमार की! तुम्हें रूपया चाहिए, यह लो ओर इसी वक्त झांसी छोड़ दो।’’ यहकहकर रानी ने अपने गले का हीरों का कंठा निकालकर सरदारों केसामने तिनके के समान फेंक दिया।सरदारों ने यह बात मंजूर कर ली और कंठा लेकर सिपाहियों के साथ दिल्ली रवाना हो गये।

यह कहानी सुबोध साहित्य माला से ली गई हे, इस के रचना कार हे श्रि ओंकारनाथ श्रीवास्तव,ओर मे उन का दिल से ध्न्यवाद करता हु

क्रमश...

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