क्रमश से आगे....
झांसी की रानी
महाराज गंगाधरराव रानी के इन सब कामों को कुछ इस ढंग से देखते थे, जैसे रानी यह सबकुछ मन बहलाने के लिए करती हो। उन्होने कभी नही सोचा कि उनकी रानी भारत के इतिहास मे एक ऊंचे दर्जे का अध्याय जोड़ने जा रही है।
समय आने पर महारानीजी ने एक लड़के का जन्म दियां। लेकिन मामूली-सी बीमारी मे नन्हा राजकुमार चल बसा। बूढ़े महाराज गंगाधरराव को इतनी चोट लगी कि उन्होने चारपाई पकड़ ली। उनके बद गददी पर बैठने के लिए उनका कोई वारिस न होगा तो उसे अंग्रेज हड़प कर लेगे। इस मुसीबत से बचने के लिए महाराज ने अपने एक पासके रिश्तेदार के पुत्र को गोद ले लिया और उस दत्तक पुत्र का नाम रखा गया दामोदरराव। गोद लेने के कामउन्होने ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार के प्रतिनिधी कि सामने किया, जिसके बाद मे इस सवाल को लेकर झगड़ा पैदा ने हो। महाराज ने कम्पनी सराकर के नाम एक खरीता भी भेजा, जिसमें यह प्रार्थना की कि अगर उनकी मृत्यु हो जाय तो दामेदरराव की झांसी की गद्दी का हक़दार माना जाय और जबतक दामोदर नाबालिग रहे, राज का कामकाज रानी देखती रहे।
कम्पनी सरकार का बड़ा दफ्तर कलकत्ते मे था। कम्पनी सरका ने महारज गंगाधरराव के खरीते का जवाब भेजने मे जान-बूझकर देर की। इसी बीच महाराज की मृत्यु हो गई। महारानी लक्ष्मीबाई को बड़ी चोट लगी। लेकिन धीरज नही खोया।उन्होने रजकाज खुद सम्भाल लिया। दीवान की मदद से वह राज करने लगी। झांसी फिर हरी-भरी हो गई। न्याय होने लगा। लोगों के मन का डर जाता रहा। व्यापार चल निकला। देखते-देखते कुछ ही दिनों में झांसी की शोभा लौट आई।
अचानक एक दिन सवेरे-सवेरे राजमहलों में खबर आई कि अंग्रेज अफसर मेजर ऐलिस महारानी से मिलने आ रहे है। जल्दी-जल्दी दरबार किया गयां। सब जान गये कि ऐलिस खरीते का जवाब लाया होगा।
सारे सभासद अपनी-अपनी जगहो पर बैठ गयें। दीवान अपने आसन पर बैठे। पर्दे के पीछे महारानी भी बैठी। ऐलिस आया। उसने कहा, ‘‘कम्पनी सरकार ने स्वर्गीय महाराज के खरीते पर विचार कर लिया हैं। महाराज के पिताजी शिवरव भाऊ की ओर कम्पनी सराकर की बड़ी दोस्ती थी, इसीलिए महाराज गंगाधरराव को कम्पनी सरकर ने गद्दी का हकदार मान लिया था। परन्तु यह सिर्फ इसलिए कि कम्पनी सरकार दोस्ती निभाना चाहती थी, नहीं तो झांसी का यह अधिकार नही था कि वह अपने राजा का फैसला आप कर ले, क्योकि झांसी का राज्य कम्पनी सरकार के अधीन है। महाराज गंगाधराव जिस दामोदरराव को गोद लेकर मरे है, उसे कम्पनी सरकार उनका वारिस नही मानती और आज से झांसी का राज्य कम्पनी राज्य मे मिलाया जाता है। महारानी को कम्पनी सरकार की ओर से जीवन-भर पेंशन मिलती रहेगी।’’
ऐलिस जानता थाकि उसने सौ फिसदी अन्याय का फरमान पढकर सुनाया है। उसने दीवान से कहा, ‘‘मै महारानी का विचार जानना चाहता हूं।’’
दीवान के कुछ कहने के पहले ही पर्दे के पीछे से रानी ने सिंहनी की तरह गरजकर कहा, ‘‘मै अपनी झांसी नही दूंगी।’’
महारानी के कंठ से निकलते ही इन शब्दों नेभारत के इतिहास में अपना अमर स्थान बना लिया। वह देश की आजादी कीपहली हुंकार थी, जो अपना पूरा रंग तब लाई जब सौ साल बाद सारे भारत ने एक होकर हुंकार की, ‘‘अंग्रेजो, भारत छोड़ दों।’’
परन्तु उस समय न तो देश की हालत अच्छी थी और न झांसी की ही। हारकर रानी को कम्पनी-सरकार का फरमान मानना ही पड़ा। उन्होने इंग्लैण्ड तक अपनी अपील भिजवाई, परन्तु जब अन्यायी ही फैसला करनेवाला हो तब न्याय की आशा करना बेकार है। फिर भी रानी ने अपनी कोशिश मे कमी न आने दी। उन्होने अपनीस्त्रियों की पल्टन को मजबूत करना जारी रखा ओर किसी-न-किसी बहाने देश-भर की खबरे इकटठी करती रही। इस काम मे बिठूर के तात्या टोपे नामर सरदार ने उनकी बड़ी मदद की।
तात्या टोपे बिठूर के पेशवा बाजीराव का सरदार था और लक्ष्मीबाईको बचपन से जानता था। इधर जब झांसी मेयह सब कांड हो रहा था, बिठूर मे भी हालत तेजी से बदल रही थी। पेशवा बाजीराव की मृत्यु हो गई थी और कम्पनी-सरकार की ओर से उन्हे जो पेंशन मिलती थी, वह जब्त कर ली गई थी। नतीजा यह हुआ था कि पेशवा के दोनो पुत्र नानासाहब ओर रावसाहब विद्रोही हो गये थे और सारेदेश मे विद्रोह फैलाने के काम मे जुट गये थे। तात्या टोपे का इस काम मे खास हाथ था।झांसी और बिठूर के अलावा लखनऊ, कानपुर आदि स्थानों मे भी जनता और सिपाही अंग्रेजों के खिलाफ हो गये थें। इसका मुख्य कारण था कि कम्पनी-सरकार का अन्याय।
यह कहानी सुबोध साहित्य माला से ली गई हे, इस के रचना कार हे श्रि ओंकारनाथ श्रीवास्तव,ओर मे उन का दिल से ध्न्यवाद करता हु
क्रमश...
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